नई दिल्ली, 03 मई 2025: जाति गणना vs जातिवाद भारत में जाति एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा से सामाजिक और राजनीतिक चर्चाओं का केंद्र रहा है। हाल ही में, नरेंद्र मोदी सरकार ने 2025 की जनगणना में जाति आधारित आंकड़े शामिल करने का फैसला किया है, जिसने देश में हलचल मचा दी है। यह फैसला 1931 के बाद पहली बार जाति गणना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। लेकिन यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में एक क्रांतिकारी बदलाव लाएगा या राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बनेगा? आइए, इस लेख में जानते हैं कि जाति गणना क्या है, यह क्यों मायने रखती है, और यह कैसे भारत की राजनीति को बदल सकती है।
जाति गणना क्या है?
जाति गणना जनगणना का वह हिस्सा है, जिसमें लोगों की जाति के आधार पर आंकड़े एकत्र किए जाते हैं। इसमें विभिन्न जाति समूहों की जनसंख्या, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा, और रोजगार जैसे कारकों की जानकारी शामिल होती है। इसका मकसद सरकार को यह समझने में मदद करना है कि कौन से समुदाय विकास की मुख्यधारा से पीछे हैं, ताकि उनके लिए बेहतर नीतियां बनाई जा सकें।
ब्रिटिश शासन के दौरान 1881 से 1931 तक हर जनगणना में जाति के आंकड़े एकत्र किए जाते थे। लेकिन 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना में इस प्रथा को बंद कर दिया गया, सिवाय अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के। तब से, जाति आधारित आंकड़े केवल इन दो समूहों तक सीमित रहे हैं।
जाति गणना vs जातिवाद हालिया घटनाक्रम
30 अप्रैल 2025 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति (CCPA) ने आगामी जनगणना में जाति गणना को शामिल करने का ऐलान किया। यह जनगणना, जो मूल रूप से 2021 में होनी थी, कोविड-19 महामारी के कारण टल गई थी। अब, इस फैसले ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में एक नई बहस छेड़ दी है।
विशेष रूप से बिहार, जहां जाति आधारित राजनीति हमेशा से हावी रही है, वहां यह मुद्दा विधानसभा चुनाव से पहले गरमा गया है। बिहार ने 2023 में अपनी जाति गणना पूरी की थी, जिसके मुताबिक राज्य की 63% आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) से है। इस सर्वेक्षण ने जाति गणना की जरूरत को और मजबूत किया।
तेलंगाना और कर्नाटक जैसे कांग्रेस शासित राज्यों ने भी अपनी जाति गणना की है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने इस फैसले को अपनी जीत बताते हुए कहा, “तेलंगाना जो आज करता है, भारत कल उसका अनुसरण करता है।” कर्नाटक में 2015 में शुरू हुआ सर्वेक्षण 2024 में पूरा हुआ।
जाति गणना vs जातिवाद : क्यों है यह जरूरी?
जाति गणना के समर्थक इसे सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण औजार मानते हैं। यह सरकार को विभिन्न जाति समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक आकलन करने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, बिहार के सर्वेक्षण से पता चला कि 84% गरीब आबादी SC, ST, और OBC समुदायों से आती है। ऐसे आंकड़े नीतियों को समावेशी बनाने और आरक्षण को प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करते हैं।
2024 के लोकसभा चुनावों में BJP को पूर्ण बहुमत न मिलने के बाद, विश्लेषकों का मानना है कि दलित, OBC, और ST समुदायों का विपक्ष की ओर झुकाव इसकी वजह रहा। एक वरिष्ठ BJP नेता ने कहा कि इन समुदायों को लगातार पार्टी के साथ जोड़ने की जरूरत है, क्योंकि ये समुदाय BJP के स्थायी वोटर नहीं हैं।
राजनीतिक उथल-पुथल की आशंका
जाति गणना का फैसला राजनीतिक दृष्टिकोण से एक ज्वालामुखी साबित हो सकता है। विपक्ष, खासकर कांग्रेस और राहुल गांधी, इसे अपनी जीत बता रहे हैं। राहुल गांधी ने इसे सामाजिक समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम बताया है। वहीं, BJP, जो पहले जाति गणना का विरोध करती थी, अब इसे अपनाकर विपक्ष के सामाजिक न्याय के एजेंडे को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।
लेकिन इस फैसले के कई जोखिम भी हैं। राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई का कहना है कि जाति गणना के आंकड़े नौकरियों और शिक्षा में कोटा तय करने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50% तय की है। अगर पार्टियां इस सीमा को चुनौती देती हैं, तो यह एक बड़ा विवाद बन सकता है।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC)
2010 में, मनमोहन सिंह सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) शुरू की थी, जिसका खर्च लगभग 4,900 करोड़ रुपये था। 2016 में इसके आंकड़े ग्रामीण और शहरी विकास मंत्रालयों द्वारा जारी किए गए, लेकिन जाति से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। ये आंकड़े सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय को सौंपे गए, जहां नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अगुआई में एक विशेषज्ञ समूह ने इन्हें वर्गीकृत करने की कोशिश की। लेकिन ये आंकड़े आज तक गोपनीय हैं।
पक्ष और विपक्ष
जाति गणना के पक्ष और विपक्ष दोनों हैं:
पक्ष | विपक्ष |
सामाजिक-आर्थिक असमानता को समझने में मदद | जातिवाद और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दे सकता है |
समावेशी नीतियों और आरक्षण के लिए आधार | आंकड़ों के दुरुपयोग का खतरा |
विकास योजनाओं को बेहतर लक्षित करने में सहायक | समाज में एकता को कमजोर कर सकता है |
आगे क्या?
जाति गणना की घोषणा अभी शुरुआत है। इसका असली प्रभाव तब दिखेगा जब आंकड़े सामने आएंगे और पार्टियां इनका इस्तेमाल कोटा और सब-कोटा तय करने के लिए करेंगी। बिहार जैसे राज्यों में, जहां जाति आधारित राजनीति पहले से हावी है, यह मुद्दा चुनावी रणनीति का केंद्र बन सकता है।
हालांकि, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जाति गणना का इस्तेमाल समाज को जोड़ने और सभी वर्गों के उत्थान के लिए हो, न कि उसे बांटने के लिए। यह एक अवसर है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियां भी हैं।
जाति गणना भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक नया अध्याय शुरू कर सकती है। यह सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का एक मौका है, लेकिन इसे सावधानी से लागू करना होगा। क्या यह भारत को एकजुट करेगा या और विभाजन पैदा करेगा? इसका जवाब समय और सरकार की नीतियां तय करेंगी।