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Jabalpur University की चूक: रानी दुर्गावती की समाधि को बताया मकबरा, मचा बवाल

Jabalpur University
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भोपाल, 05 मई 2025: मध्यप्रदेश मे Jabalpur University रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय एक बार फिर विवादों में है। इस बार मामला बीएससी द्वितीय वर्ष के फाउंडेशन कोर्स के प्रश्नपत्र से जुड़ा है। 3 मई को हुई परीक्षा में रानी दुर्गावती के समाधि स्थल को ‘मकबरा’ बताकर सवाल पूछा गया, जिससे छात्रों, सामाजिक संगठनों और इतिहास प्रेमियों में नाराजगी फैल गई।

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Jabalpur University प्रश्नपत्र में गलती, भड़का विवाद

प्रश्नपत्र के 42वें सवाल में पूछा गया, “रानी दुर्गावती का मकबरा कहां बना है?” इसके लिए चार विकल्प दिए गए: (a) बरेला (जबलपुर), (b) बम्हानी (जबलपुर), (c) चारगुंवा (जबलपुर), और (d) डंडई (जबलपुर)। ‘समाधि स्थल’ की जगह ‘मकबरा’ शब्द के इस्तेमाल से छात्र असमंजस में पड़ गए।

इस सवाल को रानी दुर्गावती की वीरता और बलिदान का अपमान मानते हुए एनएसयूआई ने कड़ा विरोध जताया। एनएसयूआई के जबलपुर जिलाध्यक्ष सचिन रजक ने कहा, “जिस वीरांगना के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उनके इतिहास की जानकारी पेपर बनाने वालों को नहीं है। यह ऐतिहासिक अज्ञानता और जन आस्था का अपमान है। जिम्मेदारों पर कार्रवाई और सार्वजनिक माफी जरूरी है, वरना हम प्रदर्शन करेंगे।”

विश्वविद्यालय ने मानी गलती

विश्वविद्यालय की परीक्षा नियंत्रक प्रो. रश्मि टंडन ने इसे गंभीर लापरवाही करार दिया। उन्होंने कहा, “रानी दुर्गावती का समाधि स्थल है, मकबरा नहीं। यह गलती अक्षम्य है। हम जांच कर रहे हैं कि पेपर सेट करने वाले शिक्षक से ऐसी चूक कैसे हुई। दोषी के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।” हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि छात्रों की ओर से अभी तक कोई औपचारिक शिकायत नहीं मिली है।

रानी दुर्गावती का समाधि स्थल

रानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सेनापति अशफ खान के खिलाफ गढ़ा राज्य की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक युद्ध लड़ा था। 24 जून 1564 को वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुईं। उनका समाधि स्थल जबलपुर के बरेला के पास स्थित है, जो उनकी शौर्य गाथा का प्रतीक है।

विश्वविद्यालय की लापरवाही पर सवाल

रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय पहले भी रिजल्ट और परीक्षा केंद्रों से जुड़े विवादों के कारण चर्चा में रहा है। इस ताजा घटना ने विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यप्रणाली पर फिर से सवाल खड़े किए हैं। सामाजिक संगठनों और इतिहास प्रेमियों का कहना है कि ऐसी गलतियां न केवल शैक्षणिक विश्वसनीयता को कम करती हैं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मूल्यों का भी अपमान करती हैं।

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